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Cricket Tales : अगर उस दिन इंग्लैंड वाले दो पास दे देते तो क्या आज एशिया कप खेलते !

Cricket Tales - ऐसे हुई थी एशिया कप की शुरुआत 1984 में । अकेले भारत और पाकिस्तान भी ये नहीं कर सकते थे। बाहर झांकने से पहले, एशियाई देशों का मिलना जरूरी था और इन दोनों की कोशिश से एशिया

Charanpal Singh Sobti
By Charanpal Singh Sobti August 09, 2022 • 07:33 AM
Asia Cup History
Asia Cup History (Image Source: Google)
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#AsiaCup कब,कैसे और क्यों ये सोचा कि एशिया के क्रिकेट देश 'अपने' एक टूर्नामेंट में खेलें? रिकॉर्ड बताता है कि एशियन क्रिकेट काउंसिल की स्थापना 1983 में हुई और हर जगह लिखा है- इसे बनाया एशियाई देशों के बीच सद्भावना को बढ़ावा देने के लिए। नतीजा एशिया कप की शुरुआत है। ये सब पढ़ने में अच्छा लगता है पर सच्चाई की स्टोरी कुछ अलग है।

असल में एशिया कप की शुरुआत का श्रेय इंग्लैंड को दिया जाना चाहिए- भले ही वे न तो एशिया में गिने जाते हैं और न ही उन्होंने कभी एशिया कप में कोई दिलचस्पी ली। इंग्लैंड वालों ने कुछ ऐसा कर दिया कि उसका जवाब देने का तरीका था एशियन क्रिकेट काउंसिल का बनना। चलिए अब पूरे किस्से पर चलते हैं :

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क्रिकेट की दुनिया में 1983 में वह हुआ जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। लॉर्ड्स में वर्ल्ड कप फाइनल में वेस्टइंडीज के सामने थी वह टीम इंडिया जिसने उससे पहले के दोनों वर्ल्ड कप में, वन डे क्रिकेट के लिए 'अनाड़ी' की प्रतिष्ठा बनाई थी। फाइनल देखने, BCCI चीफ एनकेपी साल्वे (वे सांसद थे उस समय) इंग्लैंड में थे। 25 जून के फाइनल से पहले उन्होंने इंग्लिश बोर्ड के अधिकारियों से, अपने जान पहचान वालों के लिए, दो और पास मांगे- ये नहीं दिए गए उन्हें। आईसीसी ने भी ये पास दिलाने से इंकार कर दिया। ये था उस समय इंटरनेशनल क्रिकेट के मंच पर भारत का 'सम्मान'!

साल्वे ने कोई तमाशा नहीं किया। वे पास न मिलने से नहीं- जिस तरह का व्यवहार हुआ उनके साथ, उस पर खफा थे। उन दिनों में ऐसा कुछ नहीं था कि ट्वीट करो और भड़ास निकाल लो। साल्वे ने कसम खाई कि जिस वर्ल्ड कप के नाम पर इंग्लैंड वाले इतना अकड़ रहे हैं- वही उनसे छीन लेना है। पहले तीनों वर्ल्ड कप इंग्लैंड में खेले थे और आम सोच ये थी कि इंग्लैंड से बाहर वर्ल्ड कप नहीं हो सकता।

आज सब जानते हैं कि अगले ही वर्ल्ड कप का आयोजन इंग्लैंड से छीन लिया और ये भारत और पाकिस्तान में खेला गया- ये संभव हुआ था एशियाई क्रिकेट देशों की एकता की बदौलत।आईसीसी में वोट थे 37- 8 टेस्ट देशों के दो-दो और 21 एसोसिएट्स का एक-एक वोट। वोट की ये 'एकता' लाने के लिए बनाई एशियन क्रिकेट काउंसिल और इसी एकता का प्रतीक बना एशिया कप।

भारत ने वर्ल्ड कप जीता 25 जून को और उसी दिन से उन्होंने अपनी स्कीम बनाना शुरू कर दिया था। फाइनल से अगले दिन, यानि कि 26 जून को, उनके बहनोई ने टीम के सम्मान में लंच दिया और साल्वे ने उसमें पाकिस्तान क्रिकेट के चीफ एयर मार्शल नूर खान को भी बुला लिया। एशियाई एकता में दूसरी बड़ी टीम पाकिस्तान का साथ जरूरी था। वहीं साल्वे ने नूर खान को तैयार किया कि मिलकर वर्ल्ड कप को इंग्लैंड से छीनेंगे और यहीं से क्रिकेट के मंच पर 'एकता' की शुरुआत हुई।

अकेले भारत और पाकिस्तान भी ये नहीं कर सकते थे। बाहर झांकने से पहले, एशियाई देशों का मिलना जरूरी था और इन दोनों की कोशिश से एशिया के अन्य क्रिकेट खेलने वाले देश भी एक के बाद एक, इस मुहिम में जुड़ते चले गए। एशिया के तीसरे टेस्ट देश श्रीलंका के गामिनी दसनायके भी तैयार हो गए- इस शर्त पर कि श्रीलंका कोई खर्चा नहीं करेगा।

1983 में लाहौर में मीटिंग में सब इकट्ठे हुए। तय हो गया कि एशिया कप खेलेंगे पर पैसा इनमें से किसी बोर्ड के पास नहीं था। अगली मीटिंग हुई दिल्ली में और वहां एशिया के उन देशों को भी बुला लिया जो आईसीसी के एसोसिएट सदस्य थे। एक ख़ास मेहमान थे- शारजाह के शेख बुखातिर। तब तक एमिरेट्स क्रिकेट बोर्ड नहीं बना था और यूएई नई बनी कॉउंसिल का हिस्सा भी नहीं था। उन्हें एक ख़ास मकसद से बुलाया था- वे पहले से शारजाह में 'अनऑफिशियल' मैच आयोजित कर रहे थे और टीमों पर अपने पेट्रो डॉलर 'बरसा' रहे थे- अब भी उन्हें वही करना था पर इसके बदले में थाली में परोसकर मिल रहे थे ऑफिशियल क्रिकेट मैच।

तो यूं खेले 1984 में पहला एशिया कप शारजाह में- पैसा उस व्यक्ति ने खर्चा जिसकी टीम खेल तक नहीं रही थी। यहीं से शारजाह में वन डे इंटरनेशनल क्रिकेट की शुरुआत हुई।


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